सुप्रीम कोर्ट की प्यार के नाम पर सलाह: क्या यह लव जिहाद को बढ़ावा देगी?
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सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया है। कोर्ट का कहना है कि किशोरों के बीच सहमति से बने प्रेम संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाए। साथ ही, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा (सेक्स एजुकेशन) की नीति बनाई जाए।

कोर्ट का मानना है कि इससे किशोरों को प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज (पोक्सो) एक्ट के तहत जेल जाने से बचाया जा सकेगा। यह सुझाव एक मामले की सुनवाई के दौरान आया, जिसमें कोर्ट ने सरकार से 25 जुलाई 2025 तक एक विशेषज्ञ समिति से रिपोर्ट देने को कहा।

यह मामला पश्चिम बंगाल की एक महिला की कानूनी लड़ाई से शुरू हुआ। उसके पति को पोक्सो एक्ट के तहत 20 साल की जेल हुई थी, क्योंकि जब वह 14 साल की थीं, तब उनके बीच सहमति से रिश्ता था।

कोर्ट ने दो वरिष्ठ महिला वकीलों को इस मुद्दे पर सलाह देने के लिए नियुक्त किया। वकीलों ने कहा कि पोक्सो एक्ट का मकसद बच्चों को यौन शोषण से बचाना है, लेकिन किशोरों के बीच सहमति वाले रिश्तों में इसे सख्ती से लागू करना कई बार गलत नतीजे देता है।

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से दो बड़े कदम उठाने को कहा है:

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली, मद्रास और कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसलों का भी जिक्र किया, जिन्होंने इस मुद्दे पर पहले ही संवेदनशील रुख अपनाया है। इन कोर्ट्स का मानना है कि पोक्सो एक्ट का मकसद सहमति वाले रिश्तों को अपराध बनाना नहीं था।

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल कहा था कि ज्यादातर लोग इस बात से अनजान हैं कि सहमति की उम्र 2012 में 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई है।

कोर्ट ने माना कि किशोरावस्था में हार्मोनल बदलावों की वजह से लड़के-लड़कियाँ रिश्तों की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे में उन्हें सजा देने के बजाय, उनका समर्थन किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की सलाह से साफ है कि पोक्सो एक्ट और यौन शिक्षा को लेकर कुछ बदलाव ज़रूरी हैं। कानून में लचीलापन, यौन शिक्षा का महत्व और समाज की सोच में बदलाव की ज़रूरत है।

हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट की सलाह पश्चिमी देशों की व्यवस्थाओं को ध्यान में रख रही है। भारत में पहले से ही जबरन बाल विवाह, नाबालिग लड़कियों की निकाह, शादी के नाम पर मानव तस्करी और धर्म परिवर्तन जैसी गंभीर समस्याएँ हैं।

अगर किशोरों के बीच सहमति वाले यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया, तो यह एक कानूनी खामी बन सकती है, जिसका गलत लोग फायदा उठा सकते हैं।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व चेयरमैन प्रियंक कानूनगो ने इस मुद्दे पर कहा कि जब नाबालिग अपनी सरकार नहीं चुन सकते, तो उनसे यह उम्मीद करना कि वे अपने यौन साथी को समझदारी से चुनें, सही नहीं है।

अगर 14 या 15 साल की उम्र के बच्चों के बीच सहमति वाले रिश्तों को कानूनन मंजूरी दे दी गई, तो प्रेम और शोषण के बीच की रेखा और धुँधली हो जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट का इरादा भले ही अच्छा हो, लेकिन भारत जैसे देश में ऐसी सलाह को बहुत सावधानी से लागू करना होगा। अगर सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ को ध्यान में नहीं रखा गया, तो यह फैसले प्रेम को बचाने की बजाय शोषण को वैध कर सकते हैं।

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