बिहार की दशकों पुरानी जातिगत राजनीति में एक बड़ा बदलाव आ रहा है। भले ही यह सूक्ष्म लगे, लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में इसका गहरा असर हो रहा है। राज्य की राजनीति में महिला मतदाता अब सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
पहले महिलाओं का मतदान प्रतिशत बहुत कम हुआ करता था, लेकिन आज वे बिहार के चुनावी मैदान की निर्णायक ताकत बन गई हैं। 2025 के विधानसभा चुनाव में सभी बड़े राजनीतिक दलों ने महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए खास रणनीतियां बनाई हैं। अब महिलाएं केवल मतदाता नहीं, बल्कि राजनीति की दिशा तय करने वाली ताकत बन गई हैं। यही कारण है कि चाहे एनडीए हो या महागठबंधन, सभी महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए सुनियोजित प्रयास कर रहे हैं।
1977 में पुरुषों से बहुत कम थीं महिला मतदाता। 1977 बिहार विधानसभा चुनाव में जहाँ पुरुष मतदाताओं की संख्या 71.27% थी, वहीं महिला मतदाता केवल 38.32% थीं। लेकिन अगले ढाई दशक के दौरान महिला मतदाताओं की भागीदारी बिहार के चुनाव में लगातार बढ़ती चली गई। लंबे अंतराल के बाद 2005 में महिलाएं करीब-करीब पुरुषों की बराबरी पर आ गईं। तब अक्टूबर-नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों में महिलाएं (44.62%) बहुत कम के अंतर से पुरुष मतदाताओं (47.02%) से पीछे थीं।
दशकों से चली आ रही बिहार के मतदाताओं की पुरुषवादी और शहरी छवि में 2010 के बाद से नाटकीय परिवर्तन दिखने लगा। महिलाओं की भागीदारी चुनावों में तेजी से ऊपर की ओर उठने लगी और आखिर 2010 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने पुरुषों को पछाड़ ही दिया। तब मतदान में महिलाओं की भागीदारी का प्रतिशत 54.44 फीसदी था, जबकि पुरुष की भागीदारी 51.11 प्रतिशत पर रह गई। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने बड़ी संख्या में मतदान कर पुरुषों से बहुत बड़ा अंतर बना लिया। महिला वोटर्स की संख्या 60 फीसद के पार पहुंच गई तो पुरुष 54 प्रतिशत तक ही पहुंच पाए। यानी बिहार विधानसभा चुनाव में भागीदारी का जो वर्चस्व साल 2000 तक पुरुषों का था, वो अब महिलाओं का होता दिख रहा है।
पिछले बिहार चुनाव में 243 सीटों में से 167 सीटों पर महिलाओं ने पुरुषों से अधिक मतदान किया। कुछ सीटों (जैसे बैसी और कुशेश्वरस्थान) पर तो महिला मतदान दर पुरुषों की तुलना में 20% तक अधिक रहीं। यह चुनावी प्रक्रिया में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दर्शाता है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था। साल 2010 में पुरुषों को पीछे छोड़ने के बाद, साल 2015 में महिला वोटर्स ने 4% का बड़ा अंतर बनाया और केवल शहरों में नहीं बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी इसका असर देखने को मिला। चुनाव में अपनी इसी भागीदारी से वो केवल मतदाता नहीं रह गईं, बल्कि किंगमेकर बन गईं।
महिलाओं की यह बढ़ती हुई राजनीतिक मुखरता के कारण भी है और इसके नतीजे भी मिले। नीतीश कुमार की सरकार ने राज्य में नारी शक्ति की क्षमता को पहचानते हुए उनकी भागीदारी को बढ़ाने का काम किया। महिलाओं से जुड़ी नीतियां बनाई गईं, जैसे- 2006 में पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं को 50% आरक्षण देना और 2013 में पुलिस की नौकरी और बाद में राज्य की सभी सरकारी नौकरियों में महिला आरक्षण 35% करना उनकी प्रमुख नीतियों में शामिल रहीं।
साथ ही राज्य में 2016 में की गई शराबबंदी ने भी महिला वोटरों को आकर्षित किया। हालांकि नीतीश सरकार का यह नीतिगत फैसला विवादास्पद भी रहा है। खासकर जहरीली शराब से होने वाली मौतों, लाखों की संख्या में मुकदमे और गिरफ्तारियों की वजह से नीतीश सरकार पर भारी राजनीतिक दबाव भी पड़ा। खुद उनकी ही सहयोगी बीजेपी ने 2022 में इस कानून की समीक्षा करने की मांग की थी। पर जमीनी स्तर पर महिला समूहों ने शराबबंदी को लेकर समर्थन दिखाया और इसका फायदा चुनाव नतीजों में भी दिखा।
इसके अलावा लड़कियों के लिए साइकिल योजना, स्कूल यूनिफॉर्म और छात्रवृत्ति जैसी योजनाओं ने शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों की प्रमुख बाधाओं को तोड़ा, इससे माध्यमिक शिक्षा को बढ़ावा मिला, बाल विवाह में देरी हुई और नीतीश की जेडीयू पार्टी के लिए एक मजबूत महिला जनाधार तैयार हुआ। जीविका मिशन (स्वयं सहायता समूह): करीब डेढ़ करोड़ महिलाओं को ऐसे समूहों में संगठित किया गया जिनके पास आर्थिक और राजनीतिक मोलभाव की ताकत है।
एक तरफ नीतीश कुमार और गठबंधन के उनके सहयोगियों ने महिला सशक्तिकरण और उनकी आर्थिक स्वतंत्रता से जुड़ी कल्याणकारी योजनाओं को लगातार शुरू करके महिलाओं के बीच न केवल अपने समर्थन को बनाए रखने के साथ ही उनके बीच अपने समर्थन को और कैसे बढ़ाया जाए, इस पर भी इन दलों ने खास तौर पर काम किया। वहीं विपक्षी पार्टियां महिला उन्मुखी नीतियों में पीछे रहीं।
हालांकि अब 2025 के बिहार विधानसभा चुनावों से पहले राज्य की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियां ये बात अच्छे से समझ चुकी हैं कि महिलाओं के वोट कितने जरूरी हैं। माना जा रहा है कि इस चुनावी मौसम में बीजेपी और जेडीयू जैसी सत्ताधारी पार्टियां नौकरियों और कैश ट्रांसफर जैसी नई योजनाएं ला सकती हैं तो वहीं कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को मैदान में उतारा है, और आरजेडी ने भी महिलाओं के लिए घोषणापत्र तैयार करना शुरू कर दिया है। वो अब तक हुए महिला वोटर्स के नुकसान की भरपाई की कोशिशों में जुटे हैं।
बिहार में एनडीए को ओबीसी और दलित महिलाओं का वोट सबसे अधिक मिलता है। 2020 में 63% ओबीसी महिलाओं ने एनडीए को वोट दिया था। पर इस बार महागठबंधन महंगाई, महिला सुरक्षा और शिक्षा जैसे मुद्दों पर शहरी और ग्रामीण महिला मतदाताओं से वोट मांग रहा है।
चुनाव की तारीखों की घोषणा से ठीक पहले राज्य की एनडीए सरकार ने कुछ अहम महिला केंद्रित कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की। इनमें मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 75 लाख महिलाओं के लिए 10 हजार रुपये की डायरेक्ट कैश ट्रांसफर, मुफ्त ट्रांसपोर्ट, बिजनेस शुरू करने के लिए अनुदान और अधिक महिलाओं को टिकट देने जैसे वादे शामिल हैं।
हालांकि महिलाओं की भागीदारी बिहार के चुनाव मैदान में तो वैसी नहीं बढ़ी पर मतदान में बढ़ता उनका किरदार राज्य की सत्ता के समीकरणों को बदलने की पूरा मद्दा रखता है लिहाजा 6 महिला विधायकों वाले जेडीयू ने 13 तो 7 महिला विधायकों वाले बीजेपी ने भी इस बार 13 महिलाओं को मैदान में उतारा है। भले ही यह आंकड़ा बेहद कम दिखता हो पर जमीनी स्तर पर उनकी भागीदारी बहुत बढ़ चुकी है। राज्य के कई जिलों में, स्थानीय महिला समूहों ने अब सार्वजनिक रूप से अपनी मांगें रखना, ब्लॉक-स्तर पर जवाबदेही की मांग करना और विरोध स्वरूप स्वतंत्र उम्मीदवार खड़े करना भी शुरू कर दिए हैं। जहां पहले पुरुष (घर के मुखिया) यह तय करते थे कि पूरा परिवार किसे वोट देगा, वहीं अब महिलाएं ने पारिवारिक और रिश्तेदारी के नेटवर्क को लांघ कर पुरानी पद्धतियों को चुनौती देना शुरू कर दिया है।
हालांकि महिला मतदाताओं के सामने इस साल एक अप्रत्याशित चुनौती आ खड़ी हुई है। स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन की वजह से करीब 23 लाख महिलाओं के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए, यह लगभग 6.1% होता है। यह पुरुषों (3.8%) की तुलना में बहुत अधिक है। यानी बीते डेढ़ दशक में जो लैंगिक अंतर लगातार कम होते हुए महिलाओं की हिस्सेदारी मतदान में बढ़ गई थी वो एक बार फिर खतरे में है।
वोटर लिस्ट से नाम हटने का असर एनजीओ और कई महिला संगठनों की ओर से वोटर लिस्ट से बड़ी संख्या में महिलाओं के हटाए गए नामों के तरीके को स्पष्ट करने और चुनाव आयोग से मतदान से पहले उन्हें वापस जोड़ने की मांग की गई है। इसके ले लगातार कोशिशें की जा रही हैं। पर अगर चुनाव से पहले उन्हें वापस नहीं जोड़ा गया तो इसका बहुत बड़ा असर हो सकता है। अगर महिलाओं को वापस नहीं जोड़ा गया और उनकी हिस्सेदारी मतदान में घट गई तो चुनावी नतीजे पर बड़ा असर हो सकता है।
बिहार में महिला मतदाता बेशक अब पारंपरिक सांचे से बाहर निकलने लगी हैं पर उनके मुद्दे पहले ही तरह ही सुरक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, कल्याणकारी योजनाएं, बच्चों की शिक्षा और शराबबंदी जैसे अहम मसले हैं। ये अमूमन जातिगत और धार्मिक पहचान की सीमाओं से परे पूरे राज्य की महिलाओं के मुद्दे होते हैं।
हाल के सर्वे यह दिखाते हैं-
महिलाओं की भागीदारी केवल चुनाव में मतदान तक सीमित नहीं है। सीधे मैदान में उतरने और प्रचार करने के मामले में भी उनकी संख्या में इजाफा हुआ है, हालांकि अभी यह निचले स्तर पर अधिक देखने को मिल रहा है। कुछ महिलाओं ने बड़ी और महत्वपूर्ण सीटें जीती हैं। तो शराबबंदी, बाल विवाह और ग्रामीण रोजगार जैसे मुद्दों पर सक्रिय आवाज बन कर उभरी हैं। अब राजनीतिक दलों की नीतियां भी महिलाओं को ध्यान में रख कर बनाई जाने लगी हैं। हालांकि अब भी उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
प्रगति के बावजूद, बिहार की राजनीति में महिलाओं को महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इनमें सबसे अहम है पितृसत्तात्मकता जो कि पुरुषों के वर्चस्व को पीछे छोड़ने में खास कर ग्रामीण इलाकों में बहुत अहम है। इसके अलावा महिला राजनेताओं के खिलाफ हिंसा, धमकियां और वित्तीय संसाधनों की कमी उनकी उम्मीदवारी और जमीनी संगठनात्मक ताकत को सीमित कर सकती है। हालांकि इन सब के बावजूद बिहार में महिला मतदाता आज राजनीतिक दलों की जरूरत बन गई हैं। उनके समर्थन के बगैर कोई भी राजनीतिक अभियान वहां सफल हो ही नहीं सकता।
आलम ये है कि शिक्षा से लेकर आर्थिक सशक्तिकरण तक और पंचायत से लेकर राज्य के विधानसभा चुनाव में मतदान तक अब महिलाएं बिहार की राजनीति की धुरी बनती जा रही हैं। वह दिन दूर नहीं है
बिहार SIR में लाखों नाम कटने पर सुप्रीम कोर्ट ने उठाए तीखे सवाल#BiharElections2025 | #SIR | #SupremeCourt | @ashishKB76 pic.twitter.com/WaewZ2IXT2
— NDTV India (@ndtvindia) October 7, 2025
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