बिहार की वो सीट: 60 सालों से यादवों का दबदबा, क्या 2025 में बदलेगा समीकरण?
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बिहार विधानसभा की राजनीति में अररिया जिले की नरपतगंज विधानसभा सीट अपनी अनोखी जातीय समीकरण के लिए जानी जाती है। यहां 1962 से अब तक हुए 15 में से 14 चुनावों में यादव समुदाय के प्रत्याशी ही विजेता बने हैं।

पार्टियां बदलती रहीं - कांग्रेस, भाजपा, राजद या जनता दल - लेकिन जनता का भरोसा हमेशा यादव उम्मीदवार पर ही रहा। अब 2025 का चुनाव इस परंपरा को तोड़ेगा या जारी रखेगा, यह देखना दिलचस्प होगा।

नरपतगंज विधानसभा सीट सीमांचल क्षेत्र की सबसे चर्चित सीटों में से एक है। राजनीतिक विश्लेषक इसे बिहार की जातीय राजनीति का आईना कहते हैं, क्योंकि यहां हर चुनाव जातीय समीकरणों पर ही टिका रहा है।

यादव मतदाता लगभग 30 प्रतिशत और मुस्लिम मतदाता करीब 25 प्रतिशत हैं। यही दोनों वर्ग यहां की विजय का गणित तय करते हैं।

नरपतगंज का राजनीतिक इतिहास बताता है कि यहां की राजनीति पर यादव समुदाय का लगातार प्रभाव रहा है। 1962 में कांग्रेस के डूमर लाल बैठा पहली बार विधायक बने।

1967, 1969 और 1972 में कांग्रेस के सत्यनारायण यादव ने लगातार जीत दर्ज की। 1977 में जनसंघ के जनार्दन यादव ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। 1980 में वही जनार्दन यादव भाजपा से जीते। 1985 में कांग्रेस के इंद्रानंद यादव विजयी रहे।

1990 और 1995 में दयानंद यादव (राजद) ने सफलता पाई। 2000 और 2005 में फिर जनार्दन यादव (भाजपा) ने जीत दर्ज की। 2005 के दूसरे चुनाव में अनिल कुमार यादव (राजद) विजेता बने। 2010 में देवंती यादव (भाजपा) ने कमल खिलाया। 2015 में फिर अनिल कुमार यादव (राजद) लौटे। 2020 में जयप्रकाश यादव (भाजपा) ने जीत हासिल की। इन आंकड़ों से साफ है कि पार्टी बदली लेकिन जाति नहीं बदली। यादव उम्मीदवारों का वर्चस्व कायम रहा है।

नरपतगंज की सामाजिक बनावट इस चुनावी परंपरा की जड़ है। यादवों की बड़ी संख्या और मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन ने हर बार यादव उम्मीदवार को बढ़त दी। हालांकि अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्गों की आबादी भी प्रभावी है, पर उनका झुकाव भी अक्सर यादव उम्मीदवार की ओर ही रहा है।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस सीट पर जातीय पहचान ही मुख्य चुनावी मुद्दा रही है। दल चाहे कांग्रेस हो, भाजपा या राजद, टिकट हमेशा यादव उम्मीदवार को ही मिलता रहा क्योंकि हर पार्टी जानती है कि वोट यादव का, जीत उसी की।

हालांकि अब माहौल थोड़ा बदलता दिख रहा है। विकास, रोजगार, सड़क और शिक्षा जैसे मुद्दे तेजी से उभर रहे हैं।

क्षेत्र में बार-बार आने वाली बाढ़, खराब सड़कें और युवाओं का पलायन जनता की नाराजगी का कारण बन रहे हैं। ग्रामीण इलाकों में यह चर्चा है कि अब जाति नहीं, काम देखने का समय आ गया है।

जन सुराज के आने से अब त्रिकोणीय मुकाबले की संभावना बन रही है। राजद का परंपरागत यादव-मुस्लिम समीकरण और भाजपा का संगठनात्मक ढांचा अब नई चुनौती झेल सकते हैं। जन सुराज के कार्यकर्ता लगातार क्षेत्र में सक्रिय हैं और स्थानीय मुद्दों पर जनता से संवाद कर रहे हैं। इससे पुराने जातीय समीकरणों पर असर पड़ना तय माना जा रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि 2025 का बिहार चुनाव नरपतगंज की राजनीति का निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है। क्या इस बार जनता जातीय परंपरा तोड़कर विकास के आधार पर नेता चुनेगी? या फिर यादव वर्चस्व का सिलसिला एक बार फिर जारी रहेगा? इसका जवाब आने वाला चुनाव ही देगा।

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