जब संसद के सामने संतों और गौवंश पर चली गोलियां, तो Iron Lady ने क्यों दिया था ये आदेश?
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भारत में गाय संरक्षण आंदोलन की जड़ें सदियों पुरानी हैं, जो धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं से गहराई से जुड़ी हैं। हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख और अन्य समुदायों ने हमेशा गायों के वध का विरोध किया है।

ब्रिटिश काल में, 1860 और 1880 के दशक में यह आंदोलन स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी जैसे नेताओं के समर्थन से मजबूत हुआ। नेहरू के समय में भी हिन्दू महासभा ने गोहत्या पर रोक लगाने के लिए विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे नेहरू ने खारिज कर दिया।

नेहरू का मानना था कि भारत में मुस्लिम और ईसाई भी रहते हैं, इसलिए ऐसा कानून बनाना उन्हें गोहत्या न करने के लिए मजबूर करेगा। उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को पत्र लिखकर आश्वासन दिया था कि कांग्रेस कभी भी गोहत्या बंदी का कानून नहीं बनाएगी।

1960 के दशक में, गायों की सुरक्षा और गोहत्या के खिलाफ सख्त कानून बनाने की मांग को लेकर एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ। स्वामी करपात्री महाराज इस आंदोलन के अगुआ थे।

नवंबर 1966 में, हजारों साधु-संतों और लाखों लोगों ने गोहत्या के खिलाफ कानून की मांग करते हुए संसद के बाहर प्रदर्शन किया। आगे गायें चल रही थीं और पीछे साधु-संत गोहत्या पर प्रतिबंध की मांग कर रहे थे।

इंदिरा गांधी की सरकार ने इस प्रदर्शन पर सख्त कार्रवाई की। सरकार ने साधु-संतों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया, जिसमें कई लोगों की जान चली गई। इसके बाद राजधानी में कर्फ्यू लगाना पड़ा और कई संतों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया।

तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने इस घटना की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया।

कहा जाता है कि इस घटना में सैकड़ों लोग मारे गए थे, जिनमें गोवंश भी शामिल थे।

गोलीबारी के बाद, स्वामी करपात्री महाराज ने इंदिरा गांधी को श्राप दिया था। उन्होंने कहा था कि गोपाष्टमी के दिन उनका नाश होगा।

राजीव गांधी को भी इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा था, जब शाह बानो मामले में मुस्लिम मौलानाओं ने संसद को घेर लिया था। उस समय राजीव सरकार ने कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेकते हुए सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया था।

करपात्री महाराज का श्राप सच साबित हुआ। 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई और उस दिन गोपाष्टमी थी।

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