इस्लामाबाद में आतंकियों की मस्जिद, सेना को अंदर घुसने में डर क्यों?
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पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के आबपारा बाजार में स्थित लाल मस्जिद एक बार फिर चर्चा में है. मस्जिद की लाल दीवारों के भीतर से एक ऐसा वीडियो सामने आया है जिसने पाकिस्तानी हुक्मरानों को चिंता में डाल दिया है.

5 मई को सामने आए इस वीडियो में, नमाज पढ़ने जुटे लोग पाकिस्तान के भारत के साथ युद्ध में उतरने पर अपने ही मुल्क के साथ न खड़े होने की बात कह रहे हैं. वे बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में कथित ज्यादतियों का मुद्दा उठा रहे हैं. सरकार को डर है कि कहीं 18 साल पहले जैसी स्थिति फिर से न बन जाए, जब इस मस्जिद से गोलियां चली थीं, शरिया अदालतें खुलने लगी थीं, और अल-कायदा जैसे संगठनों के संदेश इस्लामाबाद तक पहुंचने लगे थे.

2 मई 2025 को जुमे की नमाज के दौरान, विवादित मौलवी मौलाना अब्दुल अज़ीज़ ग़ाज़ी ने श्रोताओं से पूछा कि पाकिस्तान और हिंदुस्तान की जंग में कितने लोग पाकिस्तान का साथ देंगे? किसी के भी हाथ न उठाने पर उन्होंने कहा कि इसका मतलब है कि काफी समझ पैदा हो चुकी है.

उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान में अविश्वास की स्थिति है, यहां की व्यवस्था क्रूर और बेकार है, और यह भारत से भी बदतर है. उनके अनुसार, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में अत्याचार हो रहे हैं, और जब लोग तैयार थे, तो राज्य ने अपने ही नागरिकों पर बमबारी कर दी.

मौलाना ग़ाज़ी के इस बयान ने पाकिस्तान में सियासी भूचाल ला दिया है. बातचीत शुरू हो गई है कि क्या भारत के साथ जंग की संभावना के बीच पाकिस्तान को एक और गृहयुद्ध में उतरना होगा?

1965 में जब लाल मस्जिद बनकर तैयार हुई थी, तब किसी को नहीं पता था कि जनरल जिया उल हक़ यहां नमाज़ अता करने आएंगे, या जैश-ए-मोहम्मद का आतंकी मौलाना मसूद अज़हर यहां भाषण देगा और यह मस्जिद जिहाद का केंद्र बनेगी.

शुरुआत में मौलाना मुहम्मद अब्दुल्ला ग़ाज़ी को इमाम की जिम्मेदारी सौंपी गई, जिन्होंने यहां दो मदरसों की नींव रखी. इन मदरसों में इस्लामिक कट्टरपंथ और जिहाद की शिक्षा दी जाने लगी. 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत अफगान युद्ध के दौरान, लाल मस्जिद ने एक केंद्रीय भूमिका निभाई, जहां से मुजाहिद लड़ाकों की भर्ती और ट्रेनिंग हुई.

1998 में मौलाना ग़ाज़ी की हत्या के बाद, मस्जिद की कमान उनके बेटों अब्दुल अज़ीज़ ग़ाज़ी और अब्दुल रशीद ग़ाज़ी के हाथों में आई. दोनों के तालिबान और अल-कायदा के साथ अच्छे संबंध थे. उन्होंने मदरसों में दीनी तालीमों का विस्तार किया, लेकिन इम्तिहान में सिर्फ मजहबी सवाल पूछे जाते थे.

11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर अल-कायदा के हमले के बाद, पाकिस्तान ने अमेरिका का साथ देने का ऐलान किया, जिससे लाल मस्जिद का माहौल गरमा गया. मस्जिद से होने वाली तकरीरों में तल्खी बढ़ गई, और जनरल परवेज़ मुशर्रफ के कत्ल का आह्वान भी किया गया.

7 जुलाई 2005 को लंदन में बम धमाकों के बाद, पाकिस्तान ने जांच शुरू की, जिसका एक सिरा लाल मस्जिद तक जाता था. मस्जिद से जुड़े लोग सरकार की खुली आलोचना करने लगे और देश में शरिया कानून स्थापित करने की मांग उठाने लगे. वे इस्लामाबाद में फिल्म के पोस्टर्स में आग लगाने लगे, दुकानों को बंद कराते, और इमारतों में तोड़फोड़ करते.

धीरे-धीरे, लाल मस्जिद एक समानांतर सत्ता का केंद्र बन गई. 2006 में इस्लामाबाद की कैपिटल डेवलपमेंट अथॉरिटी ने अवैध मस्जिदों को हटाना शुरू किया, तो लाल मस्जिद से जुड़े युवा सड़कों पर उतर आए. 2007 में अज़ीज़ और रशीद के कहने पर, लाल मस्जिद से जुड़े लोग लोगों को बंधक बनाने लगे और शरिया अदालतें चलाने लगे.

3 जुलाई 2007 को, पाकिस्तानी रेंजर्स ने लाल मस्जिद के चारों ओर कटीले तार बिछाने शुरू किए, जिसके बाद मस्जिद के अंदर से फायरिंग शुरू हो गई. इसके बाद, पूरे इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया और सेना की तैनाती हुई. 6 जुलाई को, अब्दुल अज़ीज़ ग़ाज़ी को बुर्का पहनकर भागने की कोशिश करते हुए पकड़ लिया गया.

10 जुलाई को, पाकिस्तानी फौज के स्पेशल सर्विसेज़ ग्रुप के कमांडोज़ ने मस्जिद पर हमला किया. 11 जुलाई को, पाकिस्तान ने मस्जिद को मुक्त कराने की घोषणा की और बताया कि रशीद ग़ाज़ी क्रॉस-फायरिंग में मारा गया. मस्जिद से ओसामा बिन लादेन के जूनियर अयमान अल जवाहिरी की चिट्ठी भी बरामद हुई थी.

2009 में अब्दुल अज़ीज़ ग़ाज़ी को जमानत मिल गई और 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने उसे सारे आरोपों से बरी कर दिया.

2 मई को जब अब्दुल अज़ीज़ ग़ाज़ी ने लोगों से पूछा कि जंग में पाकिस्तान का साथ कौन देगा, तो किसी ने हाथ नहीं उठाया. यही वह कारण है जिसकी वजह से पाकिस्तान के हुक्मरान चिंतित हैं.

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