तेलंगाना जाति सर्वेक्षण: विवादों में घिरे आंकड़े, उठे पारदर्शिता पर सवाल
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तेलंगाना सरकार द्वारा हाल ही में जारी किए गए जाति सर्वेक्षण के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद विवादों में घिर गए हैं. विपक्षी दल इन आंकड़ों पर सवाल उठा रहे हैं, जबकि समर्थकों का कहना है कि यह सामाजिक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.

आलोचकों का आरोप है कि सरकार ने जानबूझकर पिछड़ी जातियों की संख्या को कम दिखाया है. सर्वेक्षण के अनुसार, पिछड़े वर्ग की आबादी कुल आबादी का 56.33% है, जिसमें मुस्लिम पिछड़ी जातियां 10.08% हैं.

यह निर्णय पिछले साल 4 फरवरी को लिया गया था और 16 फरवरी, 2024 को राज्य विधानसभा की सहमति प्राप्त हुई. सर्वेक्षण की निगरानी के लिए 19 अक्टूबर, 2024 को एक कैबिनेट उप-समिति का गठन किया गया, जिसकी अध्यक्षता उत्तम कुमार रेड्डी ने की.

नवंबर 2024 से तेलंगाना के 3.54 करोड़ नागरिकों की सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा, रोजगार, राजनीतिक और जातीय स्थिति का पता लगाने के लिए सर्वेक्षण किया गया. 50 दिनों तक चले इस सर्वे में 57 प्रश्नों वाले एक फॉर्म के तहत घर-घर जाकर जानकारी एकत्र की गई.

मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी ने 4 फरवरी को विधानसभा में जनगणना के प्रमुख निष्कर्षों की घोषणा की और इसे एक ऐतिहासिक दिन बताया.

विपक्ष का आरोप है कि पिछड़ी जातियों की संख्या में गिरावट को लेकर आंकड़ों की विश्वसनीयता संदिग्ध है. भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सर्वेक्षण की पद्धति और निष्कर्षों की आलोचना की है.

आंकड़ों के अनुसार, राज्य में अति पिछड़ा वर्ग अब आबादी का 46.25% है, जबकि पहले यह 52% था. अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी में वृद्धि दर्ज की गई है.

तेलंगाना सरकार ने जातिगत जनगणना के संपूर्ण आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया है, जिससे पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं. मुख्यमंत्री ने व्यक्तिगत आंकड़ों की गोपनीयता का हवाला दिया है.

मुख्यमंत्री ने भविष्य में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण बढ़ाने का संकेत दिया है. उपमुख्यमंत्री भटी विक्रमार्का ने कहा है कि मार्च में होने वाले विधानसभा के बजट सत्र के दौरान अति पिछड़ी जातियों के लिए स्थानीय निकाय चुनावों में 42% आरक्षण का प्रावधान होगा.

पिछड़े वर्ग एवं अन्य वंचित समूहों द्वारा लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग की जा रही है, ताकि आरक्षण नीतियों और कल्याणकारी योजनाओं में असमानताओं को दूर किया जा सके.

भारत में आखिरी बार साल 1931 में जाति आधारित जनगणना की गई थी. वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना में जातिगत आंकड़ों को एकत्र किया गया था, लेकिन इन आंकड़ों को जारी नहीं किया गया.

बिहार सरकार ने भी इसी तरह का सर्वेक्षण किया था, जिसके बाद शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण बढ़ाने के लिए कानून लाए गए थे, लेकिन उन्हें पटना हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था.

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