कुरुक्षेत्र की भूमि में जब धनुर्धारी अर्जुन अपने स्वजनों को देख , उनके हताहत होने के भय से व्याकुल होकर रणभूमि में बैठ गए थे, धनुष किनारे रख युद्ध से पलायन का निश्चय कर लिया था | और वासुदेव श्रीकृष्ण के आगे हाथ जोड़ कर कहने लगे:
न योधसे गोविन्दम् | न योधसे गोविन्दम् || अर्थात हे कृष्ण मैं युद्ध नहीं कर सकता ... मैं युद्ध नहीं कर सकता |
तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कुछ ऐसा कहा कि अब तक जो योद्धा शोक में डूबा हुआ था वह धनुष उठाकर प्रतिपक्ष पर टूट पड़ा | वस्तुतः वह कर्म और जीवन का वह ज्ञान था जो तीनों लोकों के समस्त ज्ञानों का सिरमौर है | उसे ही हम श्रीमद्भग्वद् गीता कहते हैं |
गीता मात्र कोई उपदेश या धर्म पुस्तक नहीं , बल्कि मानव जीवन की आचार संहिता है है जो मनुष्य को उसके जीवन के अर्थ और प्रायोजनों से परिचित कराती है : गीता में जो सन्देश हैं वे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुए सम्पूर्ण संसार और मानव जाति को दिए थे | उन उपदेशो ने अर्जुन को सही ग़लत का ध्यान करा के विश्व का सबसे बड़ा युध जीता दिया, फिर आज की परेशानियों को हल करने में गीता पर संकोच कैसा | गीता की कुछ ऐसी बातें जो बदल देंगी आपकी मानसिकता-
आइये जानते हैं गीता के उन 10 प्रमुख संदेशों को जिन्हें अंगीकृत कर कोई भी मनुष्य जीवन में कभी मुड़कर नहीं देख सकता |
किसी भी भी निर्णय को लेने में हम तब असमंजस में होते हैं जब हम उसे व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिगत हानि कि तुला में तोलते हैं यही मोह का कारण है और शोक की जड़ है | कर्म मुझे बांधता नहीं, क्योंकि मुझे सुख दुःख लाभ हानि जय पराजय की कोई इच्छा नहीं |
आप जो कर रहें है वो प्रभु के लिए ही तो कर रहे है, न कुछ आपका था और ना कुछ आपका होगा, फिर संकोच कैसा, बस कर्म किए जायें
क्योंकि सभी आरम्भों में (कर्मों में) ही कोई न कोई दोष होता है, जैसे अग्नि धुएं से ढकी होती है... निष्काम कर्म के मार्ग पर चलो , क्यों कि कर्म फल तो तुम्हारे हाथ में है ही नहीं | कर्म के बिना तो जीवन संभव ही नहीं, या तो भोजन करोगे या नहीं करोगे, युद्ध करोगे या नहीं करोगे, कुछ तो करोगे ही इसलिए ये न सोचो कि आगे क्या होगा बस करो |
कर्म नही करना सबसे बड़ा पाप है, तो पीछे मत देखिए, कर्म का फल प्रभु को न्योछावर करते हुए आगे बढें
बस ये सोचो कि चाहे विजय हो या पराजय तुम तो केवल इसलिए युद्ध कर रहे हो क्यों कि यही तुम्हारा कर्तव्य है | तो न तुम पराजय से दुखी होगे न विजय पर अभिमान करोगे , यही कर्म योग है यही तुम्हें स्थित प्रज्ञ बनाएगा , जो सुख दुःख सब में स्थिर रहता है
अपनी व्यक्तिगत अभिलाषाएं त्याग कर सुख दुःख से पर होकर अपने कर्म में संतुष्ट हो जाओ , तो न दुःख तुम्हें जला सकेगा और न सुख की वर्षा भिगा सकेगी |
जैसे कि परीक्षा में सफल या असफल होना आपके हाथ मे नही है, अगर कुछ हाथ मे है तो वो बस परीक्षा की त्ययारी करना | परीक्षा की त्ययारी आपका कर्म है, ये नही किया तो चाहे आप पास हो या फेल, पाप तो आपने करहि दीया |
सामान्य पुरुष विषय का ध्यान करता है, इस विषय से आसक्ति और आसक्ति से काम का जन्म होता है | काम की पूर्ति न होने से क्रोध का जन्म होता है और क्रोध से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है |
मुझे ही देखो अर्जुन ! मेरे लिए संसार में कुछ भी करना जरुरी नहीं, और ऐसा भी कुछ नहीं जो मैं कर न सकूँ ...फिर भी मैं कर रहा हूँ , सुख दुःख सब भोग रहा हूँ, क्यों कि यदि मैं कर्म त्याग दूंगा तो समस्त संसार भी मुझे दृष्टांत मान कर कर्महीनता को अपना लेगा | और कर्म चक्र ठहर जायेगा |
प्रभु भी कर्म कर रहें है, जिनके पास सब कुछ है | आप भी कर्म करिए और दूसरों के लिए मिसाल बानिए |
मैं ही तेरा सखा भी हूँ और तेरा परम मित्र भी | इस संपूर्ण जगत् का धाता अर्थात् धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥
प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ॥
जो अपनी इन्द्रियों का दमन करके उन्हें बलपूर्वक रोककर विषयों का चिंतन करे हैं वे योगी नहीं होते मिथ्याचारी होते हैं | महान पुरुष इन्द्रियों को वश में करता है उनका दमन नहीं करता , वो आँखें बंद करके नहीं जीता |
जो अपने इन्द्रियों पर अपनी चेतना का अंकुश लगा कर उन्हें सही दिशा दिखाए वही ज्ञानी है |
जैसे कि कमेंद्रियाँ का महत्व प्रजनन करना और वंश को बढ़ाना होता है, किंतु अगर मनुष्य कमेंद्रियों को अपने भौतिक सुखों के लिए प्रयोग करेगा तो बह हमेशा असंतुष्ट और अत्रप्त रहेगा |
हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है, और अधर्म बढ़ता है... तब-तब मैं स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ | मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप-धर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ
संसार तेरी कर्म भूमि है और तू अपने कर्मो के ही मानदंडो से मापा जाएगा इसलिए तू कर्मो से भागने का जतन न कर | क्यों कि तेरा निष्काम कर्म ही तेरा कर्तव्य है ,और तेरा कर्तव्य ही तेरा धर्म है |
किन्तु तेरा कर्म यदि तेरे ही हित के लिए है , तो वह पाप की ओर ले जाने वाला है | यदि समाज सुखी नही तो व्यक्ति भी सुखी नहीं रह सकता |
तू समाज का एक भाग है स्वयं को भाग समझ स्वामी न समझ |
आपके जन्म का इस संसार के लिए कुछ म्हत्व है, इसलिए आपका जन्म हुआ है, ये प्रभु की इच्छा थी | अब जब आप कर्तव्य करेंगे तो आपका वजूद इस संसार के लिए पूरा होगा | कर्तव्य और कर्म से पीछे मत हटिए |
जो अज्ञानी हैं जो बात बात पे शंका करते हैं , जो संशय युक्त हैं , वे नष्ट हो ही जाते हैं, उन्हें न इस लोक में सुख मिलता है न परलोक में इसलिए हे भारत संशय त्यागो |
मनुष्य के भटकने का कारण यह है कि उसका अज्ञान उसके ज्ञान को ढंक देता है | गीता पर शक मत करिए, सिर्फ़ आगे बढ़िए और गीता को अपने जीवन मे उतरीयें
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