अफगानिस्तान में हालिया भूकंप से मची तबाही में 2200 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। मलबे में कई लोग दबे हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं। लेकिन तालिबान के शरिया कानून के चलते, महिलाओं को बचाने में भारी दिक्कतें आ रही हैं।
इस्लामिक मान्यताओं की गलत समझ के कारण, मलबे में दबी महिलाओं को पुरुष बचावकर्मी छूने से हिचकिचा रहे हैं। शरिया कानून के तहत, किसी औरत को गैर-मर्द का छूना हराम माना जाता है। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, इस वजह से कई महिलाएं जिंदगी और मौत से जूझ रही हैं और उन्हें बचाने वाला कोई नहीं है।
महिला बचावकर्मियों की कमी है, और पुरुष महिलाओं को छू भी नहीं सकते। अगर कोई पुरुष बचावकर्मी मदद करने की कोशिश भी करता है, तो वह मलबे में दबी महिलाओं के कपड़े खींचकर निकालने की कोशिश करता है, ताकि त्वचा का संपर्क न हो। इस प्रक्रिया में कई बार महिलाओं की जान चली जाती है।
सवाल यह उठता है कि क्या किसी धर्म या परंपरा को लकीर का फकीर बनकर मानना उचित है? क्या किसी किताब में लिखे शब्द इतने जरूरी हैं कि इसके लिए किसी की जान की भी परवाह न की जाए? क्या धर्म बनाने वालों ने कभी यह सोचा था कि उनके मानने वाले बस अक्षरों को पढ़ेंगे, अक्षरों के बीच के अंतरालों को नहीं समझेंगे?
कुछ दिनों पहले एससीओ समिट में मलेशिया के पीएम की पत्नी ने चीन के राष्ट्रपति से हाथ मिलाने से इनकार कर दिया था। वहीं, बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना और जॉर्डन की रानी रानिया अल अब्दुल्ला जैसी दिग्गज महिलाओं को गैर-मर्दों से हाथ मिलाने में कोई परेशानी नहीं हुई। यह सवाल इस्लाम के मूल सिद्धांत का नहीं है, बल्कि इसकी अलग-अलग समझ का है।
तालिबान शासन में अफगानी महिलाएं मूलभूत अधिकारों से भी वंचित हैं। लड़कियां छठवीं कक्षा के बाद स्कूल नहीं जा सकतीं। महिलाओं को पुरुष साथी (महरम) के बिना दूर तक सफर करने की इजाजत नहीं है। चुनिंदा क्षेत्रों में ही महिलाएं नौकरी कर सकती हैं। हर 10 में से 8 अफगान महिलाएं शिक्षा, नौकरी और प्रशिक्षण से वंचित हैं।
अफगानिस्तान में 99 फीसदी से ज्यादा लोग इस्लाम को मानने वाले हैं। फर्क सिर्फ पवित्र किताब में लिखे सिद्धांतों की समझ का है। सूरह-अन निसा में बेटियों को विरासत में हिस्सा होने का हक दिया गया है, तो फिर औरतों के हक कैसे मारे जा सकते हैं? पेच यही है कि अल्लाह का इस्लाम अलग है और मुल्ला का इस्लाम अलग।
शरिया कानून चार चीजों पर आधारित है: कुरान, हदीस, इज्मा (सहमति) और कियास (तर्क)। इसके तहत औरतें संपत्ति खरीदने, रखने और बेचने के लिए आजाद हैं। वे नौकरी और व्यवसाय कर सकती हैं और अपनी कमाई पर पूरा कंट्रोल रखती हैं। शादी के लिए महिला की मर्जी जरूरी है, और खुला नियम के जरिए महिलाओं को भी तलाक मांगने का हक है।
शरिया कानून पुरुषों को चार पत्नियां रखने की इजाजत देता है, लेकिन शर्त यह है कि वे पत्नियों के साथ भेदभाव न करें। कई मुस्लिम महिलाएं और विद्वान इस प्रावधान की आलोचना करते हैं।
जिस वक्त इस्लाम का उदय हुआ, उस वक्त ज्यादातर पुरुषों को जंग के लिए जाना पड़ता था, जिससे बड़ी संख्या में महिलाएं विधवा हो जाती थीं। उस समय महिलाओं के भरण-पोषण का संकट खड़ा हो जाता था। ऐसे में अगर कोई पुरुष उन्हें सुरक्षा देता है, तो यह महिलाओं के हक में था। लेकिन आज के दौर में चार शादियों के अधिकार का गलत इस्तेमाल हो रहा है, जो गलत है।
यह ठीक उसी तरह से गलत है, जिस तरह अफगानिस्तान में शरिया कानून की गलत व्याख्या से मलबे में दबी महिलाओं की जान जा रही है और कोई पुरुष उन्हें सिर्फ इसलिए बचाने नहीं आ रहा है, क्योंकि वह मानता है कि उसका मजहब पराई स्त्री को छूने की इजाजत नहीं देता है। लकीर का फकीर होना गलत है, जरूरत के हिसाब से बदलना ही मजहब की सही समझ है।
#DNAWithRahulSinha | मलबे में महिलाएं दबी.. तालिबानी सोच जानलेवा बनी! तालिबानी कानून.. अफगानी महिलाओं की जान पर भारी #DNA #Afghanistan #AfghanistanEarthquake #Women | @RahulSinhaTV pic.twitter.com/FGgtVGB4Gd
— Zee News (@ZeeNews) September 6, 2025
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