दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना के एक आदेश के खिलाफ बवाल मचा हुआ है। वकील हड़ताल पर चले गए हैं और मांग कर रहे हैं कि उपराज्यपाल अपना आदेश वापस लें। वकील समुदाय का मानना है कि यह आदेश न केवल न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत को प्रभावित करता है बल्कि वकालत करने वाले समुदाय के अधिकारों को भी चोट पहुंचाता है।
पहले इस आंदोलन में जिला अदालतों के वकील कूदे थे। अब दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन भी इस मामले में सामने आया है। अब हाईकोर्ट के वकील काला फीता बांधकर अदालत में पेश होंगे। संभावना इस बात की भी जताई जा रही है कि अगर उपराज्यपाल का यह नोटिफिकेशन वापस न हुआ तो वकीलों का आंदोलन दिल्ली से बाहर तक जा सकता है।
दिल्ली के उपराज्यपाल ने हाल ही में एक आदेश जारी किया है, जिसके अनुसार अदालतों में लंबित मामलों की निगरानी और कुछ प्रक्रियाओं पर नियंत्रण के लिए विशेष व्यवस्था लागू की जाएगी। बताया जा रहा है कि इस आदेश का मकसद न्यायिक प्रणाली को अधिक जवाबदेह और समयबद्ध बनाना है।
आदेश में कुछ प्रशासनिक प्रावधान हैं जिनका असर वकीलों के कामकाज, उनकी स्वतंत्रता और मुवक्किलों से उनकी प्रत्यक्ष भूमिका पर पड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अश्विनी कुमार दुबे कहते हैं कि उपराज्यपाल ने एक नोटिफिकेशन के जरिए यह व्यवस्था कर दी है कि दिल्ली के हर पुलिस थाने में एक कॉन्फ्रेंस रूम बनेगा। वहीं से पुलिस के अधिकारी वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए अदालतों में अपने बयान, गवाही आदि दे सकते हैं। वे कहते हैं कि देश में अब तक कहीं भी ऐसी व्यवस्था नहीं है। यह कानूनी दृष्टि से भी ठीक नहीं है।
आरोप है कि इस आदेश के माध्यम से वकीलों की भूमिकाओं पर अप्रत्यक्ष अंकुश लगाने का प्रयास हो रहा है। आदेश अदालत में पेश होने की प्रक्रिया और प्राधिकृत प्रतिनिधित्व पर कुछ औपचारिक शर्तें लगाता है। न्यायिक स्वतंत्रता पर भी यह आदेश सवाल खड़े करता है। कानून-व्यवस्था पर निगरानी का अधिकार कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बिगाड़ सकता है।
दिल्ली डिस्ट्रिक्ट कोर्ट बार एसोसिएशन ने पुलिस थानों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग रूम को साक्ष्य के रिकॉर्ड को अधिकृत करने का विरोध किया है।
एलजी दफ्तर की तरफ से यह कहा गया है कि इस व्यवस्था से कामकाज आसान होगा। एलजी कार्यालय का तर्क है कि यह कदम भविष्य के लिए न्यायिक सुधार का हिस्सा माना जाना चाहिए। आम नागरिकों को बार-बार की तारीखें और लंबा खिंचता मुकदमा भारी पड़ता है। आदेश का उद्देश्य मुकदमों की गति तेज़ करना है। अदालती प्रक्रियाओं की निगरानी और जवाबदेही बढ़ाना ज़रूरी है, ताकि जनता का विश्वास कायम रहे।
एलजी कार्यालय का ये भी कहना है कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है और यहाँ बड़ा प्रशासनिक ढांचा है, इसलिए विभिन्न संस्थागत सुधारों में एलजी का सीधा दखल उचित ठहराया गया है। आदेश सिर्फ प्रशासनिक सहूलियत के लिए है और इससे वकीलों की वैधानिक स्वतंत्रता पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता।
देश की न्यायिक व्यवस्था में उपराज्यपाल या राज्यपाल द्वारा सीधे अदालतों में दखल जैसा आदेश दुर्लभ माना जाता है। सामान्यत: न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की सीमाएं साफ़ तौर पर अलग हैं।
वकीलों और बार एसोसिएशंस का कहना है कि उपराज्यपाल का आदेश कई दृष्टि से गलत है क्योंकि न्यायपालिका और वकालत व्यवस्था संविधान के तीसरे स्तंभ का हिस्सा है। कार्यपालिका का सीधा हस्तक्षेप न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर करता है। आदेश से पहले किसी भी वकील संगठन, बार काउंसिल या न्यायिक इकाई से राय नहीं ली गई।
अगर वकील स्वतंत्र रूप से अपने मुवक्किल का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाएंगे, तो उनकी पेशेवर स्वायत्तता प्रभावित होगी। एक बार अगर यह आदेश लागू हो गया तो भविष्य में दूसरे राज्यों व संस्थानों में भी इससे प्रेरित होकर कार्यपालिका द्वारा न्यायिक व्यवस्था पर अंकुश लगाने की परंपरा शुरू हो सकती है।
वकील मानते हैं कि हड़ताल केवल उनके हितों के लिए नहीं है, बल्कि यह आम नागरिक के न्याय पाने के अधिकार से जुड़ा मुद्दा है। संविधान में अलग-अलग संस्थाओं के बीच संतुलन आवश्यक माना गया है।
आम आदमी की उम्मीद अदालत से इस भरोसे पर टिकी है कि निर्णय निष्पक्ष और स्वतंत्र होंगे। अगर नागरिकों को लगता है कि अदालतों पर बाहरी दबाव है, तो भरोसा डगमगा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अश्विनी दुबे का कहना है कि पुलिस अफसर जब कोर्ट के सामने आते हैं तो कई बार बहस के दौरान केस को नई दिशा मिलती है। आपराधिक मामलों में कई बार पुलिस की भूमिका मनगढ़ंत पाई जाती है। अगर वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से बयान देगी, गवाही देगी तो वह अपने तय वर्जन पर कायम रहेगी। न्याय के लिए जरूरी है कि पुलिस अफसर अदालतों में आयें. बहस का हिस्सा बनें।
दिल्ली में उपराज्यपाल और वकीलों के बीच यह टकराव एक गहरे संवैधानिक और लोकतांत्रिक प्रश्न को उठाता है। क्या कार्यपालिका को न्यायिक मामलों में प्रशासनिक आदेश पारित करने का अधिकार है? जहां एक ओर उपराज्यपाल इसे सुधार का कदम बताते हैं, वहीं वकीलों के लिए यह उनके अस्तित्व और स्वतंत्रता का प्रश्न है। ऐसे आदेश का कोई ठोस पूर्व उदाहरण नहीं मिलता, जिससे यह मामला और भी अहम हो गया है।
इस संकट का समाधान संवाद और पारस्परिक समझ से ही निकलेगा। यदि सरकार और न्यायपालिका मिलकर मुकदमों के बोझ और विलंब को कम करने पर सहमत हों, तो नागरिकों को न्याय भी मिलेगा और वकीलों की पेशेवर स्वतंत्रता भी सुरक्षित रहेगी।
*VIDEO | Delhi: Lawyers continue their strike for the fifth day against a notification issued by the LG office. Visuals from outside Rouse Avenue Court.
— Press Trust of India (@PTI_News) August 27, 2025
Advocates across the Delhi district courts have been abstaining from work since last Friday seeking withdrawal of notification… pic.twitter.com/vyhyxHkB82
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