आतंकी हमले में भी धर्म? जमीयत की संकीर्ण सोच का विश्लेषण
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2006 के मुंबई लोकल ब्लास्ट मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा आरोपियों को बरी किए जाने के बाद, जमीयत उलेमा-ए-हिंद की भूमिका सवालों के घेरे में है। जमीयत ने इन आरोपियों को कानूनी सहायता प्रदान की थी, जिसके बाद पीड़ितों के परिवारों ने न्याय को लेकर सवाल उठाए हैं।

जमीयत का आरोप है कि 2006 के लोकल ब्लास्ट केस में मुसलमानों को जानबूझकर निशाना बनाया गया और बिना ठोस सबूतों के गिरफ्तार किया गया। जमीयत के अनुसार, 12 मुसलमानों ने 19 साल तक अकल्पनीय उत्पीड़न, यातना और अन्याय सहा। उनका कहना है कि उस समय महाराष्ट्र और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और इसलिए कांग्रेस को मुसलमानों से माफी मांगनी चाहिए।

जमीयत की यह सोच सवालों के घेरे में है कि वह आतंकी वारदात को भी धर्म के चश्मे से देख रही है। जमीयत को आरोपियों का धर्म दिखता है, लेकिन धमाके में मारे गए 187 परिवारों का दुख नहीं दिखता। उन्हें इंसानियत नहीं दिखती।

बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के बाद जमीयत को आरोपियों का चेहरा निर्दोष दिखता है, लेकिन जमीयत को यह नहीं दिखता कि इन्हीं आरोपियों को 11 सितंबर 2015 को स्पेशल कोर्ट ने दोषी ठहराया था, जिनमें से 5 दोषियों को फांसी और 7 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी।

अपनी संकीर्ण सोच की वजह से जमीयत को सिर्फ 12 आरोपियों का परिवार दिखता है क्योंकि वे मुसलमान हैं, लेकिन जमीयत को ब्लास्ट में मारे गए 187 निर्दोष लोगों का परिवार नहीं दिखता क्योंकि ये परिवार जमीयत की खास सोच के लिए लाभकारी नहीं हैं।

जमीयत को जेल में रहे आरोपियों की पीड़ा अकल्पनीय दिखती है, लेकिन अपनों को हमेशा के लिए खो देने वाले 187 परिवारों का दर्द, गम और गुस्सा नहीं दिखता। उन्हें दर्द और न्याय नहीं, केवल मजहब दिखता है।

यह पहली बार नहीं है जब जमीयत ने आतंकी वारदात के आरोपियों की कानूनी मदद की है। जमीयत ने इससे पहले भी अपनी संकीर्ण सोच में फिट होने वाले आतंकी घटनाओं के आरोपियों की कानूनी मदद की थी।

हाफिज सईद के आतंकी संगठन लश्कर से कनेक्शन के आरोपी अब्दुल रहमान, कोच्चि में आतंकी संगठन ISIS की साजिश से जुड़े केस में अर्शी कुरैशी और अन्य आरोपियों, राजस्थान में ISIS से जुड़ा सिराजुद्दीन, चिन्नास्वामी स्टेडियम ब्लास्ट केस से जुड़ा कातिल सिद्दीकी, पुणे के जर्मन बेकरी बम ब्लास्ट केस में आरोपी हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी मिर्जा हिमायत बेग, इंडियन मुजाहिदीन से जुड़े अफजल उस्मानी, जावेरी बाजार सीरियल ब्लास्ट केस, औरंगाबाद आर्म्स केस, अहमदाबाद सीरियल ब्लास्ट केस और 26/11 मुंबई आतंकवादी हमले जैसे हाई-प्रोफाइल मामलों में जमीयत ने आरोपियों की कानूनी मदद की है।

आतंकी घटनाओं को भी अपने खास धर्म से चश्मे से देखने वाली जमीयत ने आरोपियों की मदद के लिए 2007 में लीगल सेल बनाया था। तब से जमीयत अब तक आतंकी घटनाओं के 700 से ज्यादा आरोपियों की मदद कर चुकी है।

चिंता की बात यह है कि जमीयत की कानूनी मदद से जैसे मुंबई लोकल ब्लास्ट के आरोपी बरी हुए हैं, वैसे ही कई अन्य आतंकी घटनाओं के आरोपी भी कोर्ट से बरी हो चुके हैं।

जमीयत का दावा है कि वह निर्दोष लोगों को न्याय दिलाने के लिए कानूनी मदद मुहैया कराती है और आतंकवाद के खिलाफ है। लेकिन सवाल यह है कि जमीयत खास मामलों में और आरोपियों का धर्म देखकर ही कानूनी मदद क्यों करती है?

यह संकुचित और सेलेक्टिव सोच समाज में विद्वेष और विभाजन पैदा करती है। खुद को राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठन कहने वाले जमीयत उलेमा-ए-हिंद को इस संकुचित सोच के दायरे से बाहर निकलना चाहिए और अपराध और अपराधी को धर्म के चश्मे से ना देखकर कानून के चश्मे से देखना चाहिए।

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