जिस जमात-ए-इस्लामी पर हिन्दू नरसंहार का दाग, बांग्लादेश में उस पर से प्रतिबंध हटा!
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बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश पर लगा प्रतिबंध हटा दिया है। धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को नकारने के कारण पार्टी पर करीब एक दशक से प्रतिबंध था।

सुप्रीम कोर्ट ने 1 जून 2025 को जमात-ए-इस्लामी को बहाल कर दिया, जिससे एक दशक लंबे प्रतिबंध के बाद मुख्यधारा की राजनीति में उसकी वापसी का रास्ता खुल गया है।

जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश को राजनीतिक पार्टी के रूप में फिर से पंजीकृत किया गया है। पार्टी की छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिबिर का राजनीतिक पंजीकरण भी बहाल किया गया है।

इस फैसले के बाद संगठन चुनाव आयोग की सूची में शामिल हो सकता है। जून 2026 में बांग्लादेश में आम चुनाव होने वाले हैं, और जमात-ए-इस्लाम के शामिल होने का रास्ता साफ हो गया है।

अगस्त 2013 में बांग्लादेश के उच्च न्यायालय ने ही जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाया था। कोर्ट को सबूत मिले थे कि कट्टरपंथी संगठन ने चुनाव नियमों का उल्लंघन किया था और उसका चार्टर बांग्लादेश को एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने से इनकार करता है। चार्टर देश की धर्मनिरपेक्ष भावना के खिलाफ था।

कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने जमात ए इस्लामी से जुड़े 1971 युद्ध के अपराधी अजहरुल इस्लाम को बरी कर दिया था, जिसके बाद यह फैसला आया है। इससे देश में कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों को बढ़ावा मिला है, जिन्हें अब मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन हासिल है।

जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1941 में अबुल अला मौदूदी नामक एक इस्लामी चरमपंथी ने की थी। इसे पाकिस्तान में दो बार 1959 और 1964 में प्रतिबंधित किया गया था।

बांग्लादेश की स्थापना के बाद देश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान ने 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान पाकिस्तान का साथ देने और बंगाली आबादी के खिलाफ नरसंहार करने के कारण चरमपंथी संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था। शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद ये प्रतिबंध हटा लिया गया।

अगस्त 2024 में आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत जमात ए इस्लामी और उसके छात्र संगठन इस्लामी छात्र शिबिर पर फिर से प्रतिबंध लगा दिया गया।

इस चरमपंथी संगठन को शुरू से ही खालिदा जिया के नेतृत्व वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का समर्थन प्राप्त है। मई 1979 में जियाउर रहमान के शासन में जमात-ए-इस्लामी ने सक्रिय राजनीति में कदम रखा और 1991 में खालिदा जिया की पार्टी का समर्थन किया, जिससे बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी को सत्ता हासिल हुई।

दिसंबर 1970 में हुए आम चुनावों में शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की प्रांतीय विधायिका में भारी बहुमत हासिल किया। पूर्वी पाकिस्तान के मामलों में कट्टरपंथी नेताओं द्वारा लगातार हस्तक्षेप से रहमान परेशान थे, इसलिए उन्होंने अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग शुरू कर दी थी।

1970 के चुनावों में पश्चिमी पाकिस्तान में सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) क्षेत्रीय स्वायत्तता के खिलाफ थी। पीपीपी के नेता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने शेख मुजीबुर रहमान की माँगों को नकार दिया।

शेख मुजीबुर रहमान ने 7 मार्च 1971 को सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया। राष्ट्रपति याह्या खान ने मार्शल लॉ घोषित कर दिया और रहमान और दूसरे नेताओं को गिरफ्तार करने के आदेश दिए गए। पाकिस्तानी फौज ने 26 मार्च 1971 को ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया।

पाकिस्तानी फौज ने राजारबाग और पीलखाना इलाके में बंगाली समुदाय पर हमला किया और मुजीबुर रहमान को सलाखों के पीछे डाल दिया। ढाका विश्वविद्यालय में 9 शिक्षक और 200 छात्र मारे गए। पुराने ढाका, तेजगांव, इंदिरा रोड, मीरपुर, कालाबागान और अन्य स्थानों पर बंगाली नागरिकों पर हमले हुए।

दैनिक इत्तेफाक, दैनिक संगबाद समेत राष्ट्रीय अखबारों को बंद कर दिया गया और उनके दफ़्तरों में आग लगा दी गई। कई मीडियाकर्मी मारे गए। ढाका में करीब 700 लोग जलकर मर गए। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के घरों को आग लगा दी गई, जान बचाने के लिए भाग रहे लोगों पर गोलियाँ चलाईं, काली मंदिर को ढहा दिया गया और सेंट्रल शहीद मीनार को भी नष्ट कर दिया गया।

ऑपरेशन सर्चलाइट के दौरान पाकिस्तानी फौज ने 10,000-35,000 बंगालियों को मार दिया था। बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान मरने वालों की संख्या बढ़कर 3 लाख से अधिक हो गई थी। करीब 4 लाख बंगाली महिलाओं के साथ पाकिस्तानी फौज ने बलात्कार किया, जिनमें से अधिकांश हिंदू थे।

पाकिस्तानी फौज द्वारा किए गए अत्याचारों को जमात-ए-इस्लामी का समर्थन था। संगठन उस वक्त अल बद्र , अल शम्स और रजाकार नामक तीन सशस्त्र संगठनों का संचालन करते थे।

14 दिनों में ए.के. नियाजी के नेतृत्व में पाकिस्तानी फौज ने घुटने टेक दिए और 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का उदय हुआ। 2010 में स्थापित अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (बांग्लादेश) ने जमात-ए-इस्लामी से जुड़े 10 चरमपंथियों को 1971 के नरसंहार में शामिल पाया।

6 दिसंबर 1992 को बाँस की लाठियों और हथियारों से लैस 5000 मुस्लिम भीड़ ने ढाका नेशनल स्टेडियम में भारत और बांग्लादेश के बीच खेले जा रहे क्रिकेट मैच पर धावा बोलने की कोशिश की। पुलिस ने भीड़ पर आँसू गैस और रबर की गोलियाँ बरसाई। 1000 मुस्लिम भीड़ ने ढाका के थाटारी बाजार जिले में स्थित हिंदू शिव मंदिर को तोड़ दिया।

इस्लामिक कट्टरपंथियों ने नरिंदा जिले में एक हिंदू मंदिर पर हमला किया और बम विस्फोट में 88 वर्षीय हिंदू पुजारी को गंभीर रूप से घायल कर दिया। मुस्लिम भीड़ ने ढाका में ढाकेश्वरी मंदिर में भी घुसने की कोशिश की। उन्होंने हिंदुओं की दुकानें लूट लीं और कारों को लाठियों और लोहे के रॉड से तोड़ दिया।

बांग्लादेश अल्पसंख्यक मानवाधिकार कॉन्ग्रेस (एचआरसीबीएम) के अनुसार, इस नरसंहार को कट्टरपंथी इस्लामी संगठन जमात-ए-इस्लामी ने अंजाम दिया था, जो सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा थी। 2400 हिंदू महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और 3500 मंदिरों और धार्मिक प्रतिष्ठानों को नष्ट कर दिया गया। हिंदू समुदाय के 28000 से ज्यादा घर और 2500 व्यावसायिक प्रतिष्ठान तबाह कर दिए गए। इस नरसंहार में 700 हिंदू मारे गए।

2001 में जमात-ए-इस्लामी ने अपने सहयोगी बीएनपी के साथ मिलकर बांग्लादेश में चुनाव जीता था, जिसके बाद हिंदू समुदाय पर जमकर अत्याचार किए गए। कई बांग्लादेशी हिंदुओं को देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा।

फरवरी 2013 में जमात-ए-इस्लामी और उसके छात्र संगठन इस्लामी छात्र शिबिर ने 50 से ज्यादा हिंदू मंदिरों पर हमला किया और 1,500 से ज्यादा घरों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया।

फरवरी 2014 में बीएनपी सदस्यों और जमात-ए-इस्लामी चरमपंथियों ने हिंदू समुदाय पर 160 हमले किए |

ओएचसीएचआर की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदू समुदाय पर हमले पूर्व बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना को पद से हटाने की खुशी में निकाले गए विजय जुलूसों के दौरान हुए। हमलावर बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी के स्थानीय समर्थक थे।

सितंबर 2024 में मानवाधिकार कार्यकर्ता असद नूर ने खुलासा किया कि हिंदुओं को जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश में शामिल होने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

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