स्कूल में दाख़िला: दिल्ली में एक रोहिंग्या बच्ची, आफ़ना की कहानी
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आफ़ना को सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद सरकारी स्कूल में दाख़िला मिला है। सुबह छह बजे जब हम आफ़ना से मिलने पहुंचे, तो वह स्कूल जाने की तैयारी कर रही थी। उसके चेहरे पर हल्की मायूसी थी क्योंकि उसके स्कूल बैग की ज़िप टूट गई थी और उसे अपने छोटे भाई का बैग लेकर जाना पड़ रहा था।

आफ़ना, उन 19 रोहिंग्या बच्चों में से एक है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद सरकारी स्कूल में दाख़िला मिला है। पूर्वी दिल्ली के खजूरी ख़ास इलाके में रहने वाली रशीदा कहती हैं कि उन्हें पांच साल हो गए हैं दिल्ली आए हुए। वो एक तंग गली में बने एक कमरे के किराए के घर में रहती हैं। बातचीत के दौरान वो बार-बार पूछती हैं, हमें म्यांमार तो वापस नहीं भेज दिया जाएगा? और हर बार भारत सरकार का शुक्रिया भी करती हैं।

आफ़ना के साथ उसके स्कूल तक गए। रास्ते में उसकी सहेलियां भी उससे मिलती रहीं। सिर्फ आफ़ना ही थी जो स्कूल यूनिफॉर्म में नहीं थी। उसने बताया, अभी स्कूल से ड्रेस नहीं मिली है।

दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी ने पिछले साल शिक्षा विभाग को स्कूलों में बच्चों के दस्तावेजों की जांच के आदेश दिए थे। साल 2024 में दिल्ली सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर निर्देश दिया था कि स्कूलों में दाख़िले की प्रक्रिया का सख़्ती से पालन हो और दस्तावेज़ों की ठीक से जांच की जाए ताकि अवैध रूप से आए बांग्लादेशी प्रवासियों को रोका जा सके।

आतिशी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखा था, एक तरफ भाजपा है, जो बांग्लादेश से बॉर्डर पार करवा कर रोहिंग्याओं को दिल्ली लाती है और दिल्ली वालों के हक़ के ईडब्ल्यूएस फ्लैट और दूसरी सुविधाएं उन्हें देती है। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार है, जो हर संभव कोशिश कर रही है कि रोहिंग्याओं को दिल्ली वालों का हक़ न मिले।

हुसैन अहमद पिछले दस साल से दिल्ली में रह रहे हैं। भारत में रह रहे शरणार्थियों की मदद संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचसीआर करती है, जो उन्हें पहचान के लिए एक कार्ड जारी करती है। हुसैन बताते हैं कि रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में उन्हें नजदीकी थाने को नियमित जानकारी देनी होती है, यहां कुल 65 परिवार रहते हैं। अगर किसी परिवार में कोई बच्चा पैदा होता है या किसी की मौत हो जाती है, तो हमें हर महीने जाकर इसकी जानकारी देनी होती है।

आफ़ना के मामले में सुप्रीम कोर्ट से पहले दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दाख़िल की गई थी लेकिन वहां से राहत नहीं मिली। बच्चों के स्कूल में दाख़िले को लेकर हुसैन अहमद ने हाईकोर्ट में मदद के लिए वरिष्ठ वकील अशोक अग्रवाल से संपर्क किया था।

अशोक अग्रवाल का कहना था, भारत का संविधान और शिक्षा का अधिकार यह कहता है कि कोई भी बच्चा, चाहे वह कहीं का भी नागरिक हो, उसे शिक्षा का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने इन बच्चों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की बात कही है। कोर्ट ने कहा है कि ये बच्चे सरकारी स्कूलों में दाख़िला ले सकते हैं।

आफ़ना ने बताया, मम्मी कहती हैं कि आज खाना नहीं है। कई बार पैसे भी नहीं होते कि कुछ खाने के लिए दे सके। तो खाली टिफिन देती हैं फिर उसी में मैं स्कूल से मिलने वाला खाना ले लेती हूं। आफ़ना को स्कूल पसंद है और उसकी कुछ सहेलियां भी बन गई हैं और पढ़ाई में भी मदद करती हैं। वो आठवीं कक्षा में पढ़ती है। उसे पेंटिंग करना पसंद है।

वह कहती है मैं लोगों की मदद करना चाहती हूं, इसलिए डॉक्टर बनना चाहती हूं। मैं यहां ज्यादा बाहर नहीं जाती क्योंकि यहां माहौल ख़राब है। लड़के बैठे रहते हैं। कुछ-कुछ बोलते हैं।

आफ़ना की मां रशीदा बार-बार भारत सरकार का शुक्रिया अदा करती हैं। रशीदा बेगम बताती हैं, मेरे चार बच्चे हैं। दो बच्चे बहुत छोटे थे। हालांकि मैं पहले भी इंडिया आना चाहती थी, लेकिन इन हालात में आऊंगी, यह नहीं सोचा था। मेरी ज़िंदगी तो बर्बाद हो ही गई, लेकिन मेरे दो बच्चों को स्कूल में दाख़िला मिल गया। इसके लिए सबका शुक्रिया।

रोहिंग्या बच्चों की शिक्षा के लिए स्वतंत्र रूप से कुछ लोग काम करते हैं। विनोद कुमार शर्मा एक अन्य स्थानीय नगर निगम स्कूल के प्रिंसिपल हैं। वो बताते हैं कि साल 2012-2013 के सत्र से उनके स्कूल में रोहिंग्या बच्चे-बच्चियां पढ़ने आ रहे हैं।

आफ़ना के भी छोटे-छोटे सपने हैं। जब उससे पूछा गया कि क्या वह म्यांमार वापस जाना चाहेगी, तो उसने मुस्कराते हुए कहा, मुझे दिल्ली पसंद है। मेरी यहां दोस्त बन गई हैं। आफ़ना लाल क़िला घूम चुकी है और इस रमज़ान में उसने जामा मस्जिद में इफ़्तारी भी की। लेकिन वह अब भी मोबाइल फोन पर देखे गए रंग-बिरंगे इंडिया गेट को असल में देखना चाहती है।

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