जैन धर्म में क्यों चुना जाता है मौत के लिए उपवास का ये तरीका?
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88 वर्षीय सायर देवी मोदी को सर्वाइकल कैंसर होने का पता चला। उन्होंने इलाज कराने की बजाय मरणव्रत चुना। उनके पोते प्रणय मोदी के अनुसार, रिपोर्ट में कैंसर फैलने का पता चलने के बाद उन्होंने 13 जुलाई, 2024 को प्रार्थना की और सूप पिया। अगले ही दिन संथारा अपनाने की इच्छा जताई।

संथारा, जिसे सल्लेखना भी कहते हैं, एक ऐसी परंपरा है जिसमें जैन धर्म के अनुयायी खाना-पीना छोड़कर मौत को चुनते हैं। यह अनिवार्य नहीं है, लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, हर साल 200 से 500 लोग ऐसा करते हैं।

कुछ लोग इस परंपरा को आत्महत्या मानते हैं और इसका विरोध करते हैं। संथारा को बैन करने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।

जैन धर्म अहिंसा पर आधारित है और लगभग 2,500 साल पुराना है। इसमें ईश्वर नहीं हैं, लेकिन शुद्ध, स्थायी और व्यक्तिगत आत्मा में विश्वास किया जाता है। जैन धर्म के लगभग सभी अनुयायी शाकाहारी होते हैं और नैतिक मूल्यों पर जोर देते हैं। भारत में जैन धर्म को मानने वाले करीब 50 लाख लोग हैं।

भारतीय समाज में जैन गुरुओं को सम्मान दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जैन गुरु से आशीर्वाद लिया था। गुरु आचार्य विद्यासागर के निधन पर उन्होंने इसे देश के लिए अपूरणीय क्षति बताया था।

जैन धर्म के अनुयायियों का तर्क है कि मरणव्रत को इच्छा मृत्यु या आत्महत्या से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। कोलोराडो डेनवर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर स्टीवन वोज के अनुसार, संथारा में कोई मेडिकल हेल्प नहीं ली जाती और न ही कोई नुकसानदायक इंजेक्शन लगाया जाता है।

प्रोफ़ेसर वोज कहते हैं कि यह परंपरा पुरानी है और इसके प्रमाण छठी सदी में भी मिलते हैं। कर्म, आत्मा, पुनर्जन्म और मोक्ष इसके प्रमुख तत्व हैं।

सायर देवी जैसे कुछ जैन मौत के इस तरीके को तब चुनते हैं जब उन्हें पता चलता है कि उनकी मृत्यु नजदीक है या उन्हें कोई लाइलाज बीमारी हो गई है। मरणव्रत के दौरान सायर देवी सफेद साड़ी पहने और चेहरे को कपड़े से ढके हुई थीं। उनके पोते के अनुसार, वह बेहद शांत थीं और आखिरी वक्त तक बात कर रही थीं।

दादी के आखिरी वक्त के दौरान उनके घर में उत्सव जैसा माहौल था, क्योंकि बहुत सारे लोग आए थे। परिवार, रिश्तेदार, दोस्त और पड़ोसी उनका आशीर्वाद ले रहे थे। सायर देवी में इतनी ऊर्जा थी कि उन्होंने 48 मिनट तक जैन धर्म से जुड़ी प्रार्थना की।

हालांकि, संथारा से हमेशा शांतिपूर्ण अंत नहीं मिलता। विस्कॉन्सिन-मैडिसन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर चेज़ के अनुसार, टर्मिनल कैंसर से पीड़ित एक व्यक्ति संथारा चुनने के बाद बेहद दर्द में था। लेकिन उसके परिवार को इस फैसले पर गर्व था और उन्होंने उसका साथ दिया।

एक अन्य मामले में, एक महिला को टर्मिनल कैंसर हुआ और संथारा चुनने के बाद वह बेहद शांत हो गईं।

प्रोफ़ेसर वोज़ का मानना है कि थोड़ा-बहुत संघर्ष तो होता ही है। किसी को भूख से मरते हुए देखना कभी सुखद नहीं हो सकता और आखिरी लम्हें दर्दनाक होते हैं।

संथारा अपनाने वालों में महिलाओं की संख्या अधिक मानी जाती है, क्योंकि उन्हें पुरुषों के मुकाबले अधिक क्षमतावान माना जाता है। जैन समुदाय संथारा को एक अद्भुत आध्यात्मिक उपलब्धि के रूप में देखता है।

95 वर्षीय प्रकाश चंद, जो 16 साल की उम्र में जैन साधु बने थे, कहते हैं कि यह जीवन के आदर्श अंत और अगले जीवन की आदर्श शुरुआत के रूप में है और यह उनके दार्शनिक, आध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित है।

संथारा के कई चरण हैं और इसे अचानक नहीं अपनाया जा सकता। इसके लिए परिवार के सदस्य या धर्म गुरु की अनुमति जरूरी होती है। इसका पहला चरण अपनी बुराइयों को स्वीकार करना और माफी मांगना है।

प्रकाश चंद कहते हैं कि उपवास रखना और मृत्यु को स्वीकार करना शरीर और आत्मा को साफ करना है, जिससे बुरे कर्म कम होते हैं और बेहतर जिंदगी मिलती है। यह जीवन और मृत्यु के चक्र से आत्मा की मुक्ति है।

2015 में राजस्थान हाई कोर्ट ने संथारा पर बैन लगा दिया था, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगा दी। पूर्व सिविल सर्वेंट डी. आर मेहता उन लोगों में से हैं जो संथारा की परंपरा को संरक्षित करना चाहते हैं। उनके अनुसार, जैन इसे मौत के सबसे बेहतर तरीके के रूप में देखते हैं, जिसमें शांति और आत्म शांति मुख्य उद्देश्य होते हैं।

2016 में हैदराबाद की एक 13 साल की लड़की की संथारा चुनने के बाद मौत हो गई थी, जिसके बाद इस प्रथा का विरोध शुरू हुआ। हालांकि, हाल के सालों में इसे बुजुर्गों ने ही चुना है।

प्रकाश चंद ने 2016 में सल्लेखना को चुना था। पहले उन्होंने अपने खाने को दस चीजों पर सीमित किया और अब सिर्फ दो चीजों पर, पानी और दवाई पर। हालांकि, वह अभी भी एक्टिव हैं और खुश महसूस कर रहे हैं। उनकी जीवनशैली ने इस रास्ते में मदद की है।

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