मैं नहीं समझता कि शायद ही भारत में कोई ऐसा हो जो कृष्ण और कृष्ण के ब्रज से परिचित न हो | कृष्ण का ब्रज और ब्रज का कृष्ण , वह जो द्वारिका में जा बसे थे जरूर जदगीश्वर होंगे , वासुदेव होंगे ! मगर कृष्ण तो यहीं था | वे जो पाञ्चजन्यधारी थे , वे कुरुक्षेत्र गए होंगे, मगर जो वंशीवाला था वो यहीं है | वो कहीं नहीं गया, वो कहीं जा ही नहीं सकता |
हर क्षण -हर कण -हर घर- हर नर- हर स्वर में कृष्ण है यहां ! कितने ही उपायों से, कितने ही प्रकारों से कृष्ण ने ब्रजधाम में स्वयं को आज भी बसा रखा है | जिनमें से एक रूप हैं वृन्दावन के हमारे `बिहारी जी` ! दुनिया इन्हें श्री बांके बिहारी मंदिर के पते से जानती है, मगर इनका पता यहां हर ह्रदय में हैं | बिहारी जी सिर्फ कृष्ण नहीं बल्कि किशोरी जी राधा और कृष्ण युगल का विग्रह रूप है |
क्या है विग्रह रूप ?
बिहारी जी का विग्रह रूप निधिवन से प्राप्त हुआ था। निधिवन राधा-कृष्ण के महारास का उपवन था | मान्यता है कि आज भी इस वन में नियमित राधा कृष्ण का मिलन होता है। यह वन हमेशा ही कृष्ण भक्तों के लिए आदरणीय है| स्वामी हरिदास जी जब भी निधिवन में बैठ कर गायन करते थे, कहते हैं श्रीकृष्ण उनके पास आ कर बैठ जाते और उन्हें सुनते रहते थे | एक दिन हरिदास जी ऐसे ही गायन कर रहे थे कि अचानक राधा कृष्ण दोनों ही प्रकट हुए और फिर एकदम से हरिदासजी के स्वर बदलने लगे , वे जो भी गा रहे थे ,उसे छोड़ कर एक नया गीत गाने लगे :
`भाई री सहज जोरी प्रकट भई, जुरंग की गौर स्याम घन दामिनी जैसे।
प्रथम है हुती अब हूं आगे हूं रहि है न टरि है तैसे।।
अंग अंग की उजकाई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे।
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा पुंज बिहारी सम वैसे वैसे।।`
श्री कृष्ण ने हरिदास जी से कहा कि हम दोनों आपके साथ ही रहेंगे। इस पर हरिदास जी सोच में पड़ गए, पूछने पर हरिदास जी ने कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूं। आपको तो अपनी तरह जोगी बना कर रख लूँगा ! लेकिन लाड़ली जी को नित्य श्रृंगार और आभूषण कहां से लाकर दूंगा? भक्त की बात सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराए और राधा कृष्ण की युगल जोड़ी एकाकार हो गई और एक विग्रह रूप में प्रकट हुई। हरिदास जी ने इस विग्रह को बांके बिहारी नाम दिया।
बांके का शब्दिक अर्थ होता है- टेढ़ा इस आधार पर बिहारी जी त्रिभंगा मुद्रा में है। इस छवि में श्री कृष्ण अपने एक पद को मोड़ कर तिरछा रखते हैं, इसलिए उनके भक्त प्यार से उन्हें " डेढ़ टांग वाला " भी बुलाते हैं | बांके बिहारी की सम्पूर्ण छवि बाँकी है | टेढ़े कदम्ब वृक्ष के नीचे , टेडी गर्दन,टेडी सी माला,पहने टेड़ा मुकुट, टेड़ा मोरपंख धारण किये टेढ़ी कलाइयों से टेडी बांसुरी बजाते हैं उनकी चाल भी टेढ़ी है , और कहते हैं ब्रज की धरा भी पृथ्वी तल से कुछ टेढ़ी है |
कौन थे हरिदास जी:-
श्रीहरिदास स्वामी , विषय-उदासीन वैष्णव थे। उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजापुर नामक गाँव में हुआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। तानसेन हरिदास जी के ही शिष्य थे | इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया। मन्दिर निर्माण के शुरूआत में किसी दान-दाता का धन इसमें नहीं लगाया गया।
बांकेबिहारी जी का बालकपन :-
बांकेबिहारी जी के रूप में श्रीकृष्ण एक बालक की तरह विराजमान हैं , बालक प्रेम के वश में होता है ,वैसे ही बांकेबिहारी जी जहाँ प्रेम और करुणा देखी चले गए | उनके इसी बालकपन और निश्छलता ने कई बार पुजारियों और गोसाइयों के लिए बड़ी मुश्किलें उत्पन्न की हैं , भक्तों के करुण निवेदन और प्रेम को देख कर वे कई बार मंदिर से अचानक ही चले जाते थे , फिर बड़े निवेदन और खोजने पर वापस आते थे | इसीलिए मंदिर मे उन्हें परदे मे रख कर उनकी क्षणिक झलक ही भक्तों को दिखाई जाती है। पुजारियों का एक समूह दर्शन के वक्त लगातार मूर्ति के सामने पड़े पर्दे को खींचता - गिराता रहता है| ये पर्दा इसलिये डाला गया है कि भक्त बिहारी जी से ज़्यादा देर तक आँखे न मिला सकें क्योंकि बालकमन बिहारी जी भक्तों की भक्ति व उनकी व्यथा से इतनी करुणा से भर जाते हैं अपने आसन से उठ कर भक्तों के साथ चल पड़ते हैं, वो कई बार ऐसा कर चुके हैं|
बिहारी जी के चमत्कार :-
एक बार एक भक्त बिहारी जी को एक टक देखता रहा उसके मन में उसके किसी मुकदमे को लेकर वेदना थी | फिर पट बंद हुए और भक्त चला गया , कुछ देर बाद पुजारी जी ने जब मन्दिर का कपाट खोला तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी नहीं दिखाई दिये। पता चला कि वे अपने उस भक्त की गवाही देने अलीगढ़ चले गये हैं। तभी से ऐसा नियम बना दिया कि झलक दर्शन में ठाकुर जी का पर्दा खुलता एवं बन्द होता रहेगा। ऐसी ही बहुत सारी कहानियाँ प्रचलित है।
1. एक बार राजस्थान की एक राजकुमारी बांके बिहारी जी के दर्शनार्थ आई लेकिन वो इनकी भक्ति में इतनी डूब गई कि वापस जाना ही नहीं चाहती थी। परेशान घरवाले जब उन्हें जबरन घर साथ ले जाने लगे तो उसकी भक्ति या कहें व्यथा से द्रवित होकर बांके बिहारी जी भी उसके साथ चल दिये। इधर मंदिर में बांके बिहारी जी के गायब होने से भक्त बहुत दुखी थे, आखिरकार समझा बुझाकर उन्हें वापस लाया गया।
2. एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया।
3. एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। दोनों वृन्दावन आकर श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे। कुछ दिन श्रीबिहारी जी के दर्शन करने के पश्चात उसके पति ने जब स्वगृह वापस लौटने कि चेष्टा की तो भक्तिमति ने श्रीबिहारी जी दर्शन लाभ से वंचित होना पड़ेगा, ऐसा सोचकर रोने लगी। संसार बंधन के लिए स्वगृह जायेंगे, इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि– `हे प्रभु में घर जा रही हूँ, किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना, ऐसा प्रार्थना करने के पश्चात वे दोनों रेलवे स्टेशन की ओर घोड़ागाड़ी में बैठकर चल दिये। उस समय श्रीबाँकेविहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी को न देखकर उन्होंने भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े। गाड़ी में बालक रूपी श्रीबाँकेबिहारी जी से प्रार्थना करने लगे। दोनों में ऐसा वार्तालाप चलते समय वो बालक उनके मध्य से गायब हो गया। तब पुजारी जी मन्दिर लौटकर पुन श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।
4. इन सबमें सबसे प्रचलित और विस्मयकारी घटना पागल बाबा से सम्बंधित है
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