जाति जनगणना पर यू-टर्न: मोदी सरकार के अचानक बदले रुख के पीछे क्या है मजबूरी?
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बिहार सरकार द्वारा अक्टूबर 2023 में जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी करने के बाद, केंद्र सरकार ने देश में अगली जनगणना में जातियों की गिनती कराने का फैसला लिया है. केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बुधवार को इस निर्णय की घोषणा करते हुए बताया कि जनगणना केंद्र का विषय है और कुछ राज्यों के जातिगत सर्वे पारदर्शी नहीं थे.

विपक्षी दल, जैसे कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, लगातार देश में जाति जनगणना की मांग कर रहे थे. राहुल गांधी ने भी इस मुद्दे को उठाते हुए कहा था कि देश में दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्गों की संख्या पता होनी चाहिए, ताकि संसाधनों में उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सके.

राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि सरकार को विपक्ष की बात माननी पड़ी है और अब उनकी मांग होगी कि विधानसभा चुनावों में पिछड़े और अति पिछड़ों के लिए सीटें आरक्षित की जाएं. कांग्रेस ने भी सरकार के फैसले का समर्थन किया है, लेकिन जनगणना की समय-सीमा बताने की मांग की है.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महागठबंधन (विपक्ष) ने जाति जनगणना को एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था, जिसके कारण मोदी सरकार को यह फैसला लेना पड़ा. बिहार और कर्नाटक के जाति सर्वे ने पिछड़ी जातियों की आबादी और राजनीतिक हिस्सेदारी को उजागर किया, जिससे सरकार पर दबाव बढ़ गया.

बिहार में हुए सर्वे के अनुसार, राज्य में अति पिछड़ा वर्ग 27.12 प्रतिशत, अत्यन्त पिछड़ा वर्ग 36.01 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19.65 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 1.68 प्रतिशत और अनारक्षित यानी सवर्ण 15.52 प्रतिशत हैं.

भारत में 1931 में जाति जनगणना हुई थी, जिसके बाद जनगणनाओं में जातियों की गिनती नहीं की गई. केवल दलितों और आदिवासियों की संख्या गिनी जाती है. यह माना जाता है कि देश की आबादी में 52 फ़ीसदी लोग पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति के हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी कम है.

वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता का मानना है कि बीजेपी ने हाल के वर्षों में पिछड़ों और दलितों को अपने साथ जोड़ने में कामयाबी हासिल की है और जातिगत गणना से वह यह दिखाना चाहती है कि ओबीसी समुदाय का बड़ा हिस्सा उसके साथ है.

आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा था कि संघ जाति जनगणना के पक्ष में है, लेकिन इसका राजनीतिक फ़ायदा नहीं लिया जाना चाहिए.

आज़ादी के बाद भारत ने 1951 में पहली जनगणना की, जिसमें केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को वर्गीकृत किया गया. 2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई गई, लेकिन इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना देर-सवेर होनी ही है, लेकिन सवाल यह है कि इसे कब तक रोका जा सकता है.

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