महाकुंभ में आधी रात कैसे बनाए गए नागा साधु, देखिए कुंभ का सबसे बड़ा रहस्य
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मंत्र, शस्त्र, शास्त्र, त्याग और वैराग्य

ये उस जीवन पद्धति के मूल तत्व हैं जिन्हें नागा साधु अपनाते हैं। वे शैव हैं जो शिव की भक्ति और वैराग्य की शक्ति में लीन होते हैं। जगत को नश्वर मानने वाले इन तपस्वियों का कठिन जीवन जहां प्रकृति से एकाकार होता है, वहीं इनकी दीक्षा पद्धति भी अद्भुत है।

दीक्षा का रहस्य

नागा साधु बनना अपने उस जीवन की समाप्ति है जो सांसारिकता के बंधन में बंधा है। यह बैराग की वह पराकाष्ठा है जिसमें प्रवेश करने वाले अपनी सात पीढ़ियों सहित खुद का पिंडदान करते हैं।

संन्यासी का अर्थ

आचार्य स्वामी अवधेशानंद गिरि कहते हैं, संन्यास का अर्थ है कामनाओं के सम्यक न्यास से। अतः संन्यासी होना अर्थात् अग्नि, वायु, जल और प्रकाश हो जाना है। संन्यासी के जीवन का प्रत्येक क्षण परमार्थ को समर्पित होता है।

दीक्षा की प्रक्रिया

नागा दीक्षा एक कठिन और गहन साधना प्रक्रिया है। यह 48 घंटे में पूरी होती है। इसमें गंगा के तट पर अवधूतों का मुंडन और जनेऊ होता है।

पिंडदान

नागा साधु बनने से पहले अवधूत बनना होता है। इसके तहत साधकों ने पिंडदान किया। उन्होंने 17 पिंड बनाए। इनमें से 16 उनके पूर्व की सात पीढ़ियों के थे और एक उनका खुद का था।

मुक्ति की प्रक्रिया

दीक्षा के दौरान अवधूत को नदी तट पर ले जाया जाता है। उसके शरीर के सारे बाल काट दिए जाते हैं। स्नान के बाद उन्हें नई लंगोटी धारण कराई जाती है। गुरु उन्हें जनेऊ पहनाकर दंड, कमंडल और भस्म देते हैं। इसके बाद वे अपनी सात पीढ़ियों और खुद का पिंडदान करके संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।

दिगंबर की दीक्षा

अवधूत बनने के बाद साधक को दिगंबर की दीक्षा दी जाती है। इसमें अखाड़े की धर्म ध्वजा के नीचे अवधूत को 24 घंटे तक अन्न-जल त्यागकर व्रत करना पड़ता है।

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